महलका जैन मंदिर .
फलावदा,मेरठ के गांव महलका स्थित श्री 1008 भगवान चंद्रप्रभु का प्राचीन जैन मंदिर गौरवमय इतिहास लिये आस्था एवं श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। मंदिर में भगवान चंद्रप्रभु की चमत्कारी अलौकिक चतुर्थकालीन प्रतिमा विराजमान है। दूरदराज से आने वाले भक्तों का तांता लगा रहना इसका प्रमाण है।
यहां 1834 ई. से पूर्व भगवान पार्श्वनाथ का चैत्यालय था। मुस्लिम बहुल गांव होने के बावजूद सभी वर्ग के लोग भाईचारे और सद्भाव के साथ एक परिवार की तरह रहते हैं। करीब दो सौ वर्ष पूर्व ब्रिटिश काल में जब सरधना में बेगम समरू का शासन था।
उस समय सरधना के निकट गंगनहर की खुदाई के दौरान भगवान चंद्रप्रभु की सफेद मूर्ति प्राप्त हुई थी। बेगम के धार्मिक सलाहकार निमित्त ज्ञानी ने कहा प्रतिमा जहां भी रहेगी, वहां जैन समाज के लोगों की सत्ता होगी। जैन समुदाय को बेगम समरू ने इस प्रतिमा को सरधना से बाहर ले जाने का फरमान सुना दिया।
जैन समुदाय के लोग जब इस प्रतिमा को अतिशय क्षेत्र हस्तिनापुर में विराजमान करने के लिए बैलगाड़ी से ले जा रहे थे। भगवान पार्श्वनाथ के चैत्यालय वाला गांव महलका के रास्ते में पड़ा। रात होने पर सभी लोग महलका में रुक गए। सुबह गंतव्य की ओर प्रस्थान करने लगे। बताते हैं कि प्रतिमा वाली बैलगाड़ी टस से मस नहीं हुई।
काफी कोशिश करने के बाद भी बैलगाड़ी आगे नहीं बढ़ी, तो साथ आए एक श्रद्धालु को चंद्रप्रभु भगवान ने स्वप्न में कहा कि मेरा मंदिर यहीं बनाओ। जैन समाज के लोगों ने यह बात सुनी तो उन्होंने भगवान चंद्रप्रभु की मूर्ति को विराजमान करने के लिए बैलगाड़ी से उठाया। बताते हैं कि विशाल प्रतिमा फूल की मानिंद हल्की हो गई।
इस पर चारों ओर भगवान की जय जयकार होने लगी। आखिरकार महलका गांव में एक विशाल मंदिर का निर्माण हुआ। वह आज 95 फुट ऊंचे विशाल शिखर वाला मंदिर के रूप में स्थित है। मूर्ति मंदिर में आते ही महलका में चमत्कार प्रारंभ हो गए।
कहा जाता है कि उससे पूर्व महलका में जैनियों की वंश वेल गोद लिये बच्चों से चलती थी। हालांकि अब यहां रहने वाले जैन समाज के परिवारों में पुत्र की प्राप्ति होने लगी। साथ ही सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि अधिकतर जमींदारी जैन समाज के लोगों की हो गई।
यहां 1971 में एक धर्मशाला का निर्माण कराया गया। यहां राष्ट्रीय महिला संत सत्यवती का आगमन हुआ। 24 घंटे का भक्तामर पाठ बहन जी के सानिध्य में हुआ। जिसमें मध्य रात्रि लगभग दो बजे दो खूबसूरत मनमोहक परिंदे प्रकट हुए तथा जिनवाणी की परिक्रमा कर लौट गए। बहन सत्यवती के मुताबिक वे परिंदे न होकर देव थे।
क्योंकि पंछी कभी रात्रि में परवाज नहीं भरते। भव्य शिखर काले अलौकिक मंदिर में पांच देवी बनी हैं। जिनमें मूलनायक के रूप में भगवान चंद्रप्रभु की चमत्कारी अलौकिक चतुर्थ काली मूर्ति तथा दूसरी वेदी में मूलनायक के रूप मे भगवान महावीर, भगवान नेमिनाथ, भगवान शांतिनाथ रहे।
जिसमें भगवान पदमप्रभु शीतलनाथ जी वसुपूज्य विराजमान हैं। एक अन्य वेदी में भगवान पारसनाथ की अति प्राचीन चमत्कारी 108 फनयुक्त प्रतिमा भी विराजमान है। यह मंदिर के निर्माण से पूर्व ताले में विराजमान थी।
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